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सीबीआई: भरोसे की एजेंसी या कठपुतली? सच सामने लाने में क्यों नाकाम?

सीबीआई की जांच पर सवाल: क्या राज्य पुलिस है बेहतर?

भारत की सबसे प्रतिष्ठित जांच एजेंसी, सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (सीबीआई), जिसे कभी देश का सबसे विश्वसनीय जांच तंत्र माना जाता था, आज कई हाई-प्रोफाइल मामलों में अपनी विश्वसनीयता खो रही है। सुशांत सिंह राजपूत, निठारी हत्याकांड, तलवार हत्याकांड जैसे कई चर्चित मामलों में सीबीआई की जांच न केवल असफल रही, बल्कि कई बार इसे अदालतों में भी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। आज जनता में यह धारणा बन रही है कि कई बार राज्य पुलिस की जांच सीबीआई से बेहतर साबित होती है। आइए, इस लेख में हम कुछ ऐसे प्रमुख मामलों पर नजर डालते हैं, जहां सीबीआई की जांच पर सवाल उठे और कुछ अन्य हाई-प्रोफाइल केसों का भी जिक्र करते हैं, जिन्हें लोग अक्सर भूल जाते हैं।


1. सुशांत सिंह राजपूत मामला: साधारण आत्महत्या या कुछ और?

14 जून 2020 को बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु ने देश को हिलाकर रख दिया। मुंबई पुलिस ने शुरुआती जांच में इसे आत्महत्या बताया, लेकिन सुशांत के परिवार, प्रशंसकों और कई राजनेताओं ने इसे हत्या करार देकर सीबीआई जांच की मांग की। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अगस्त 2020 में सीबीआई ने जांच शुरू की। मार्च 2025 में सीबीआई ने मुंबई की एक विशेष अदालत में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की, जिसमें कहा गया कि यह एक “साधारण आत्महत्या” का मामला था और कोई साजिश या हत्या का सबूत नहीं मिला।

लेकिन सवाल यह है कि अगर यह इतना “साधारण” मामला था, तो सीबीआई को निष्कर्ष तक पहुंचने में चार साल से ज्यादा क्यों लगे? जांच के दौरान रिया चक्रवर्ती पर आत्महत्या के लिए उकसाने, वित्तीय धोखाधड़ी और मानसिक उत्पीड़न के आरोप लगे। सीबीआई ने रिया, उनके परिवार, सुशांत की बहन प्रियंका और अन्य करीबियों से पूछताछ की, लेकिन कोई ठोस सबूत नहीं जुटा सकी। ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (AIIMS) की फॉरेंसिक रिपोर्ट ने भी 2020 में ही आत्महत्या की पुष्टि की थी। फिर भी, सीबीआई ने जांच को लंबा खींचा और अंत में कोई नया निष्कर्ष नहीं दिया। सुशांत के पिता केके सिंह ने जांच पर असंतोष जताया और कहा, “एजेंसी ने समय पर काम नहीं किया।”

इस देरी ने जनता में शक पैदा किया। सोशल मीडिया पर लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या सीबीआई ने दबाव में काम किया? क्या महत्वपूर्ण सबूतों को नजरअंदाज किया गया? अगर आत्महत्या इतनी स्पष्ट थी, तो क्लोजर रिपोर्ट को सार्वजनिक करने में इतना समय क्यों लगा? ये सवाल सीबीआई की पारदर्शिता और स्वतंत्रता पर गंभीर संदेह पैदा करते हैं।


2. निठारी हत्याकांड: भयावह सच्चाई, लेकिन न्याय नहीं

2006 में नोएडा के निठारी गांव में हुए सीरियल किलिंग्स ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। व्यवसायी मोनिंदर सिंह पंधेर और उनके नौकर सुरेंद्र कोली पर बच्चों और युवतियों के अपहरण, बलात्कार और हत्या का आरोप लगा। सीबीआई ने 2007 में जांच अपने हाथ में ली और 16 मामलों में चार्जशीट दाखिल की। हालांकि, 2023 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दोनों को 12 मामलों में बरी कर दिया, क्योंकि जांच में कई खामियां थीं। कोर्ट ने सीबीआई की जांच को “लापरवाही भरा” करार दिया और सबूतों के अभाव में दोनों को रिहा कर दिया। इस मामले में जनता का गुस्सा पुलिस और सीबीआई दोनों पर फूटा, क्योंकि पीड़ित परिवारों को आज तक न्याय नहीं मिला।


3. आरुषि तलवार हत्याकांड: उलझा हुआ रहस्य

2008 में नोएडा में 14 साल की आरुषि तलवार और उनके नौकर हेमराज की हत्या ने देश को स्तब्ध कर दिया। शुरुआत में नोएडा पुलिस ने जांच की, लेकिन बाद में मामला सीबीआई को सौंपा गया। सीबीआई ने आरुषि के माता-पिता, डॉ. राजेश और नूपुर तलवार, को मुख्य आरोपी बनाया। 2013 में गाजियाबाद कोर्ट ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई, लेकिन 2017 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सबूतों के अभाव में दोनों को बरी कर दिया। कोर्ट ने सीबीआई की जांच को “अनुचित” और “सबूतों से छेड़छाड़” का आरोप लगाया। इस मामले में सीबीआई की थ्योरी और जांच की खामियां बार-बार चर्चा में रहीं, जिसने एजेंसी की साख को गहरा नुकसान पहुंचाया।


4. अन्य चर्चित मामले जहां सीबीआई नाकाम रही

सीबीआई की असफलताएं सिर्फ इन तीन मामलों तक सीमित नहीं हैं। कुछ अन्य हाई-प्रोफाइल केसों में भी एजेंसी को आलोचना का सामना करना पड़ा:

  • 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला (2011): यह भारत का सबसे बड़ा वित्तीय घोटाला माना गया, जिसमें सीबीआई ने कई बड़े नेताओं और उद्योगपतियों पर आरोप लगाए। हालांकि, 2017 में विशेष अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया और सीबीआई की चार्जशीट को “अनुमान आधारित” करार दिया। कोर्ट ने कहा कि सीबीआई कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर सकी।
  • बोफोर्स घोटाला (1980-90): इस रक्षा सौदे में कथित भ्रष्टाचार की जांच सीबीआई ने की, लेकिन 2005 में दिल्ली हाईकोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया। कोर्ट ने सीबीआई की जांच को “250 करोड़ रुपये की बर्बादी” बताया।
  • जिया खान आत्महत्या मामला (2013): अभिनेत्री जिया खान की आत्महत्या की जांच सीबीआई ने की, लेकिन सात साल बाद भी कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। इस मामले में अभिनेता सूरज पंचोली पर आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप था, लेकिन सीबीआई सबूत जुटाने में नाकाम रही।
  • नरेंद्र दाभोलकर हत्या मामला (2013): तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की जांच सीबीआई को सौंपी गई, लेकिन कई साल बाद भी मामला अनसुलझा रहा। इसने सीबीआई की कार्यक्षमता पर गंभीर सवाल उठाए।
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सीबीआई की असफलता के कारण

सीबीआई की नाकामी के पीछे कई कारण हैं:

  • राजनीतिक दबाव: कई मामलों में सीबीआई पर सत्ताधारी दलों के दबाव की बात सामने आई है, जिसके कारण जांच प्रभावित होती है।
  • सबूतों का अभाव: सीबीआई अक्सर जल्दबाजी में चार्जशीट दाखिल करती है, लेकिन ठोस सबूत जुटाने में नाकाम रहती है।
  • मीडिया ट्रायल: हाई-प्रोफाइल मामलों में मीडिया की अटकलबाजी जांच को प्रभावित करती है, जिससे सीबीआई का ध्यान भटकता है।
  • अधूरी जांच: कई बार सीबीआई शुरुआती जांच को गहराई तक नहीं ले जाती, जिससे मामले अदालत में कमजोर पड़ जाते हैं।
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क्या राज्य पुलिस है बेहतर?

हाल के वर्षों में कई मामलों में राज्य पुलिस ने बेहतर प्रदर्शन किया है। उदाहरण के लिए, दिल्ली पुलिस ने प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड (1996) में दोषी को सजा दिलाई, जबकि सीबीआई कई समान मामलों में नाकाम रही। इसी तरह, उत्तर प्रदेश पुलिस ने विकास दुबे जैसे अपराधियों के खिलाफ तेजी से कार्रवाई की। हालांकि, राज्य पुलिस भी भ्रष्टाचार और दबाव से मुक्त नहीं है, लेकिन उनकी स्थानीय जानकारी और त्वरित कार्रवाई कई बार सीबीआई से बेहतर परिणाम देती है।


निष्कर्ष: सीबीआई को सुधार की जरूरत

सीबीआई को अपनी खोई साख वापस पाने के लिए जांच प्रक्रिया में पारदर्शिता, स्वतंत्रता और दक्षता लानी होगी। सुशांत सिंह, निठारी, तलवार जैसे मामलों ने न केवल पीड़ित परिवारों को निराश किया, बल्कि जनता का भरोसा भी तोड़ा। अगर सीबीआई को फिर से “देश की सबसे भरोसेमंद जांच एजेंसी” बनना है, तो उसे अपनी कार्यशैली में बड़े बदलाव करने होंगे।


लोग फिर भी सीबीआई की मांग क्यों करते हैं?

स्थानीय पुलिस पर भ्रष्टाचार और पक्षपात के आरोपों के कारण लोग सीबीआई को बेहतर मानते हैं। लेकिन बार-बार असफलताओं ने यह सवाल उठाया कि क्या सीबीआई सिर्फ एक कठपुतली है, जो सत्ता के इशारों पर काम करती है? सुशांत मामले में चार साल की देरी और अंत में “साधारण आत्महत्या” का निष्कर्ष जनता को संतुष्ट नहीं कर सका।


निष्कर्ष: भरोसे को फिर से जगाने की जरूरत

सुशांत सिंह राजपूत मामले में सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट ने कई सवाल छोड़ दिए। अगर यह साधारण आत्महत्या थी, तो इतनी देरी क्यों? क्या सीबीआई ने सभी पहलुओं की गहराई से जांच की, या सिर्फ औप copybook पेश किया और फिर चार साल बाद उसी निष्कर्ष पर पहुंचे? सीबीआई की पारदर्शिता और स्वतंत्रता पर सवाल उठाने वाले ये सवाल जनता के भरोसे को कमजोर करते हैं। निठारी, तलवार, 2जी जैसे मामलों में भी सीबीआई की नाकामी ने इस धारणा को बल दिया कि यह एजेंसी शायद सत्ता की कठपुतली बन चुकी है। अगर सीबीआई को जनता का भरोसा दोबारा जीतना है, तो उसे निष्पक्ष, पारदर्शी और समयबद्ध जांच करनी होगी।